बच्चे तो कच्ची मिट्टी होते हैं और उन्हें गूँथ कर सही आकार देना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। बाल साहित्य पर अभी भी बहुत कार्य होना है। साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिये साहित्यकार की जिम्मेदारी बहुत बढ जाती है। समाज को गढने का दायित्व कोई साधारण कार्य तो नहीं। बुनियाद को नजरंदाज कर कोई मजबूत ईमारत नहीं खडी की जा सकती तो क्यों न हम नये पादपों को सींचें। आईये तितली पर लिखें, सूरज से रिश्ता गढें, चंदा को मामा बनायें और पूर के पूवे खायें।
लेकिन दोष किसका है? साहित्यसर्जकों का भी है कि वे बच्चों की कवितायें और कहानियों को साहित्य की श्रेणी प्रदान नहीं कर सके। वह नहीं लिख सके जो बालक मन को इतनी प्रिय हो जाती कि उनकी कल्पनाओं में रंग भरती। आज एसा कोई बाल किरदार है क्या, जिस जैसा बच्चा बनना चाहे? स्पाईडरमैन और सुपरमैन बन कर बच्चा कहीं छत से छलांग न लगा ले धयान रखियेगा चूंकि फ्लेटसंस्कृति में वैसे भी दस दस माले की बिल्डिंगें बनने लगी हैं।
***राजीव रंजन प्रसाद
4 comments:
बच्चे तो कच्ची मिट्टी होते हैं और उन्हें गूँथ कर सही आकार देना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। बाल साहित्य पर अभी भी बहुत कार्य होना है। साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिये साहित्यकार की जिम्मेदारी बहुत बढ जाती है। समाज को गढने का दायित्व कोई साधारण कार्य तो नहीं।
der se aaya durust aaya.....
man khush ho gaya.......
hamlogo ki ek sanstha hai. YAWNIKA
jo bachchon ke liye hi kaam krti hai.
saal men ekbar balmahotsava ka aayojan hota hai hamari sanstha dwara.
yahan bhi aaye
balmahotsava.blogspot.com
स्पाईडरमैन और सुपरमैन बन कर बच्चा कहीं छत से छलांग न लगा ले धयान रखियेगा चूंकि फ्लेटसंस्कृति में वैसे भी दस दस माले की बिल्डिंगें बनने लगी हैं।
"hi beautiful, after a long time han, read ur article great, very rightly said, liked reading it han"
love ya
राजीव जी
आप ने मेरी दुखती राग पर हाथ रख दिया है...अपने देश में ही हम अपनी संस्कृति से दूर हैं...मिष्टी के आने के बाद ये एहसास हुआ है की बच्चों के लिए हमारी भाषा में कोई ढंग की पुस्तकें ही नहीं है...बड़े बड़े माल में किताबों की दुकानों पर सिवाय इंग्लिश की किताबों के कुछ नहीं मिलता...बड़ी मुश्किल से कोई किताब मिलती भी है तो वो धार्मिक चरित्रों का भौंडा प्रदर्शन करती ही मिलती है...यहाँ तक की अच्छी क, ख, ग, सिखाने वाली किताब भी नहीं है...जयपुर जाने पर जब वो पूछती है "दादा मेरी बुक?" तो मुझे उसे चमक दमक से भरपूर A B C वाली किताब ही पकड़नी पड़ती है..
नीरज
पुनश्च: कुहू बिटिया को काला टीका लगा कर रखिये....
बिल्कुल सहमत हूँ आपसे.
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