Wednesday, August 27, 2008

आईये मित्रों!! आने वाली पीढी के लिये कलम चलायें।


बच्चे तो कच्ची मिट्टी होते हैं और उन्हें गूँथ कर सही आकार देना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। बाल साहित्य पर अभी भी बहुत कार्य होना है। साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिये साहित्यकार की जिम्मेदारी बहुत बढ जाती है। समाज को गढने का दायित्व कोई साधारण कार्य तो नहीं। बुनियाद को नजरंदाज कर कोई मजबूत ईमारत नहीं खडी की जा सकती तो क्यों न हम नये पादपों को सींचें। आईये तितली पर लिखें, सूरज से रिश्ता गढें, चंदा को मामा बनायें और पूर के पूवे खायें।


नये बाल किरदार पैदा अब क्यों नहीं होते? जब से तेनीली रामा, बीरबल और शेखचिल्ली की मौत हुई उनकी कुर्सियाँ खाली ही हो गयीं। जो नये किरदार हैं वो हिंसा और कदाचित भारतीय संस्कृति में जिसे हम शालीन नहीं कहते एसी सामग्री परोस रहे हैं। आज पंचतंत्र का नाम कम ही बच्चों को ज्ञात है। यह सब साधारण बातें नहीं हैं। हम अपनी जडों से बच्चों को काट रहे हैं। पराधीन भारत में अंगरेजों नें हमारी संस्कृति, सभ्यता और बुनियाद को जितना नुकसान नहीं पहुँचाया उतना स्वाधीन भारत के मॉम और डैडों नें पहुचाया है। चंपक, नंदन, चंदामामा और लोटपोट इस लिये फैशन से बाहर हुए क्योंकि चमकीले जिल्द में एसे अंग्रेजी किरदारों और पुस्तकों को हमने अपने घरों में आने दिया और अपने बच्चों की कोमल कल्पना शक्ति से खिलवाड करने दिया जो हमारी सोच-समझ और संस्कृति की परिभाषा से परे थे।


लेकिन दोष किसका है? साहित्यसर्जकों का भी है कि वे बच्चों की कवितायें और कहानियों को साहित्य की श्रेणी प्रदान नहीं कर सके। वह नहीं लिख सके जो बालक मन को इतनी प्रिय हो जाती कि उनकी कल्पनाओं में रंग भरती। आज एसा कोई बाल किरदार है क्या, जिस जैसा बच्चा बनना चाहे? स्पाईडरमैन और सुपरमैन बन कर बच्चा कहीं छत से छलांग न लगा ले धयान रखियेगा चूंकि फ्लेटसंस्कृति में वैसे भी दस दस माले की बिल्डिंगें बनने लगी हैं।


आईये मित्रों!! आने वाली पीढी के लिये कलम चलायें।

***राजीव रंजन प्रसाद

4 comments:

Bandmru said...

बच्चे तो कच्ची मिट्टी होते हैं और उन्हें गूँथ कर सही आकार देना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। बाल साहित्य पर अभी भी बहुत कार्य होना है। साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिये साहित्यकार की जिम्मेदारी बहुत बढ जाती है। समाज को गढने का दायित्व कोई साधारण कार्य तो नहीं।

der se aaya durust aaya.....

man khush ho gaya.......

hamlogo ki ek sanstha hai. YAWNIKA

jo bachchon ke liye hi kaam krti hai.
saal men ekbar balmahotsava ka aayojan hota hai hamari sanstha dwara.
yahan bhi aaye
balmahotsava.blogspot.com

seema gupta said...

स्पाईडरमैन और सुपरमैन बन कर बच्चा कहीं छत से छलांग न लगा ले धयान रखियेगा चूंकि फ्लेटसंस्कृति में वैसे भी दस दस माले की बिल्डिंगें बनने लगी हैं।
"hi beautiful, after a long time han, read ur article great, very rightly said, liked reading it han"
love ya

नीरज गोस्वामी said...

राजीव जी
आप ने मेरी दुखती राग पर हाथ रख दिया है...अपने देश में ही हम अपनी संस्कृति से दूर हैं...मिष्टी के आने के बाद ये एहसास हुआ है की बच्चों के लिए हमारी भाषा में कोई ढंग की पुस्तकें ही नहीं है...बड़े बड़े माल में किताबों की दुकानों पर सिवाय इंग्लिश की किताबों के कुछ नहीं मिलता...बड़ी मुश्किल से कोई किताब मिलती भी है तो वो धार्मिक चरित्रों का भौंडा प्रदर्शन करती ही मिलती है...यहाँ तक की अच्छी क, ख, ग, सिखाने वाली किताब भी नहीं है...जयपुर जाने पर जब वो पूछती है "दादा मेरी बुक?" तो मुझे उसे चमक दमक से भरपूर A B C वाली किताब ही पकड़नी पड़ती है..
नीरज
पुनश्च: कुहू बिटिया को काला टीका लगा कर रखिये....

Udan Tashtari said...

बिल्कुल सहमत हूँ आपसे.