Sunday, August 10, 2008

पर्यटन - कुहू का बस्तर भ्रमण – भाग 1

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(सामान्य परिचय, बस्तर का इतिहास, बारसूर एवं दंतेवाडा के प्रमुख स्थलों की सैर)

प्यारे दोस्तों,

घूमने का मजा उठाना हो तो मन में अप्पूघर और वाटरपार्क का ख्याल ही आता है। मैं तो कहती हूँ ये भी कोई मजा करना हुआ? आईये मैं आपको एसे स्थल की सैर करवाती हूँ कि आप चौंक उठेंगे।


अगर आप मानते हैं कि धरती पर स्वर्ग है, लेकिन कहाँ, यह नहीं जानते तो मध्य-भारत के छत्तिसगढ राज्य के बस्तर क्षेत्र की यात्रा अवश्य करें। एसे सघन वन कि भीतर धूप भी प्रवेश करने से कतराती हो। सागवान के विशाल दरख्तों और बाँस के घने जंगलो के भीतर मनोरम घाटियाँ, गुफायें, नदी, निर्झर और प्राचीन इतिहास इस तरह बिखरा हुआ है कि इस मनोरम में मन रम जाता है। चलिये बस्तर की यात्रा पर चले। बस्तर क्षेत्र तीन जिलों से मिल कर बना है, बस्तर, काँकेर और दंतेवाडा जिला। 1999 में अपने विभाजन से पूर्व ये तीनों ही जिले मिल कर संयुक्त बस्तर जिले को 39114 वर्ग किलोमीटर का विस्तार देते थे, जो कि केरल जैसे राज्य या कि बेल्जियम और इज्रायल जैसे देशों से भी अधिक था। यह तो अब बीते जमाने की बात हो गयी लेकिन जो नही बीता वह है इस क्षेत्र की नैसर्गिकता।
यह मान्यता है कि इस वनक्षेत्र में जिसे दंडकारण्य के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्रीराम नें अपने वनवास का अधिकतम हिस्सा काटा था। तथापि बस्तर के इतिहास पर प्रामाणिक जानकारी 11वीं शताब्दी के नागवंशी राजाओं के शासन के दौरान के अवशेषों से प्राप्त होती है जिनकी राजधानी वर्तमान दंतेवाड़ा नगर के निकट बारसूर हुआ करती थी। यह राजवंश चक्रकोट नाम से भी जाना जाता है जिसका विलय बाद में वारंगल के काकतीय राजवंश में हो गया। 1424 . में महान काकतीय राजा प्रतापरुद्र देव के भाई राजा अन्नमदेव नें बारंगल छोड कर बस्तर में काकतीय प्रशासन कायम किया। किंतु उनके तीन पीढियों के शासन के पश्चात बस्तर में इस परिवार की शाखा समाप्त प्राय हो गयी और डोंगर तथा बस्तर का शासन राजा राजपालदेव के हाथों में गया।
बच्चों इतिहास में राजा रानी की कहानी ईर्ष्या-द्वेष और प्रतिस्पर्धा के बिना समाप्त नहीं हो सकती। राजा राजपाल देव की दो रानियाँ थीं बघेलिन तथा चंदेलिन। रानियों की स्वाभाविक आपसी ईर्ष्या के फलस्वरूप महाराज राजपाल देव की मृत्यु के पश्चात जैसे ही घरेलू राजनीति से असल वारिस रानी चंदेलिन के पुत्र दलपल देव को बेदखल कर दखिन सिंह को शासन प्राप्त हुआ वैसे ही निष्काशित दलपत देव नें जयपोर (उडीसा) में शरण ली और जयपोर राजवंश की सहायता से बस्तर पर पुन: अपना शासन प्राप्त किया। इतिहास इसी उतार चढाव और ताकत की दास्तां है जहाँ अपने ही बंधु बांधवों से गलाकाट प्रतिस्पर्धा राजगद्दी दिलाती रही थी। बस्तर भी इससे अछूता नहीं था। खास बात यह कि जयपोर और रायपुर के शासकों की ताकत नें भी इस वन क्षेत्र की राजनीति को यथासमय खासा प्रभावित किया है। राजा दलपत देव नें ही बस्तर की राजधानी जगदलपुर में स्थापित की। राजा दलपत देव की मृत्यु के पश्चात के प्रमुख राजा रहेदरयाव देव, अजमेर सिंह, महिपाल देव, भोपाल देव और भैरम देव।

राजा भैरम देव के समय अंग्रेज अपने पैर भारतभर में पसार चुके थे और बस्तर भी इससे अछूता नहीं रहा। उनके शासन काल में दीवान की अदूरदर्शिता और मनमानी के फलस्वरूप हुए एक गोली काँड में क्षेत्र के कुछ मुरिया आदिवासियों की मौत हो गयी। सन 1876 की इस घटना के बाद एक तरह से अंग्रेजों नें शासन को हथिया लिया और क्षेत्रीय प्रशासन कठपुतली हो गया। 1883 में राजा को पद से हटा कर अंग्रेजों नें उनके खिलाफ जाँच बिठा दी जिसमें उनपर लगे आरोप सिद्ध हो सके। भैरम देव 1886 में पुन: राजा हुए किंतु अंग्रेजो के नियुक्त दीवान और नीयमों के साथ। यह अंग्रेजों की बस्तर पर शासन की शुरुआत थी। राजा भैरमदेव 1891 में स्वर्गवासी हुए और सिंहासन अंग्रेजों के नियुक्त दीवानों की सरपरस्ती में नाबालिग राजा रुद्रप्रताप देव के हाँथों में चला गया। एसा नहीं था कि बस्तर की जनता जागरूक नहीं थी और अंग्रेजी हुकूमत को चुप रह कर बर्दाश्त करती रही। 1910 का आदिवासी विद्रोह इस दिशा में मील का पत्थर है जिसने अंगेजी शासन और नियुक्त दीवान की ईंट से ईंट बजा दी थी।
1921 में राजा रुद्रप्रताप देव की मृत्यु के पश्चात शासन उनकी पुत्री रानी प्रफुल कुमारी देवी के हाँथों मे चला गया। 1927 में उनका विवाह मयुरभंज (उडीसा) के राजपरिवार में राजा प्रफुल कुमार भंजदेव के साथ हुआ। महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की 1936 में लंदन में मृत्यु हुई जिसके पश्चात 1937 में उनके वरिष्ठ पुत्र महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव बस्तर के शासक हुए। महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेवकाकतीयआज भी बस्तर और आदिवासी समाज में ईश्वर की तरह पूजे जाते हैं। 1948 में बस्तर राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हो गया और यह स्वतंत्र भारत का हिस्सा बना।
( दशहरे में होने वाली प्रसिद्ध रथयात्रा में प्रयुक्त रथ के पास खडे मेरे पापा - कुहू)

दोस्तों, इतिहास की चर्चा इस लिये आवश्यक है कि जब मैं आपको बस्तर के भीतर बिखरे मंदिरों, मूर्तियों और भग्नावशेषों से परिचित कराने लगूं तो आप उससे जुड सकें। यात्रा का प्रारंभ बस्तर की प्राचीन राजधानी बारसूर से करते हैं जहाँ पुराने मंदिरों में अब भी संरक्षित हैं 8 फीट उँची प्रचीन गणेश प्रतिमा। प्रतिमा के चारों ओर टूटे हुए मंदिर के प्रचीन स्तंभ और अवशेश अवस्थित हैं।


एक और प्राचीन मंदिर जिसे स्थानीयमामा-भाँजाका मंदिर के नाम से भी जानते हैं यह 50 फीट उँचा मंदिर अब भी पूर्णत: संरक्षित स्थिति में है।
मामा भाँजा के प्राचीन मंदिर से कुछ ही दूरी पर 32 स्तंभों पर खडा अति प्राचीन शिव मंदिर भी है। कुछ किंवदंतिकार इसे सिंहासन बत्तीसी की कहानियों से भी जोडते हैं। यथार्थ जो भी हो इस सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह मंदिर दर्शनीय है।
बारसूर में प्राचीन गौरव के अवशेश देखते हुए मनोरम पहाडी रास्तों से हो कर निकट से ही बह रही इन्द्रावती नदी के प्रस्तावित बोधघाट जलविद्युत परियोजना द्वारा बनाये गये पुल तक पहुँचा जा सकता है। इस स्थल के पास नदी सात धाराओं में बँट कर बहती है और प्रकृति निर्मित यह दृश्य देखते ही बनता है।
और अब पास ही दंतेवाडा नगर चलते हैं। माँ दंतेश्वरी का भव्य प्राचीन मंदिर और मंदिर के भीतर प्राचीन मूर्तियों की विरासत देखते ही बनती है।
माँता दंतेशवरी की इस क्षेत्र में मान्यता उत्तर भारत के माता बैष्णो मंदिर जैसी ही है।
पास ही भैरव और प्रचीन शिव मंदिर भी दर्शनीय हैं।


दंतेश्वरी माता के मंदिर के पीछे माता दंतेश्वरी के पैरों के निशान साथ ही पवित्र शंखिनी और ड़ंकिनी नदियों का संगम भी है।
दोस्तों आज इतना ही।
इस यात्रा के अगले हिस्से में आप सभी को मैं बस्तर के अन्य दर्शनीय स्थलों के भ्रमण पर ले चलूंगी।

- आपकी कुहू।


प्रस्तुति:

*** राजीव रंजन प्रसाद

3 comments:

Udan Tashtari said...

अरे वाह भाई, हमें तो बिटिया कुहू के साथ घूमने में बहुत मजा आया. आगे और घूमने का इन्तजार है. बहुत आशीष कुहू को और पापा मम्मी को हमारा नमस्ते. :)

हमने बस्तर तब घूमा था जब हम ५वीं में पढ़ते थे और खूब सारा आंवला तोड़ कर लाये थे और बेलाडीला से लोहे का पत्थर लाये थे. बहुत दिन तक हमारे पास था, फिर गुम गया न जाने कहाँ? :(

seema gupta said...

Hi, Kuhu, not fair han, akele, akele hmmmmmmmmmmm, any way thanks sharing your visit through this post and wonderful pics'
Love ya

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह बेटा
२२ मई २००४ को दांतेवाडा में भाई अवधेश अवस्थी के सौजन्य से मां दंतेश्वरी के मैंने भी दर्शन किये थे.
मदन पांडे, काशीपुरी कुंदन, दिनेश देहाती, बाबा कानपुरी व अनेक कवि भी साथ थे.
उस रात गीदम में आयोजित विराट कवि सम्मेलन में मुझे 'पं देवीरत्न अवस्थी करील सम्मान' मिला था.
११००० रू, शाल, स्मृतिचिन्ह, प्रशस्ति पत्र वगैरह-वगैरह..
मेरी तमाम यादें जागृत हो गईं..
अगले दिन भी खूब घूमे..
तुम्हारी इस पोस्ट ने दोबारा घुमा दिया.
वाह बिटिया वाह....