बच्चे तो कच्ची मिट्टी होते हैं और उन्हें गूँथ कर सही आकार देना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। बाल साहित्य पर अभी भी बहुत कार्य होना है। साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिये साहित्यकार की जिम्मेदारी बहुत बढ जाती है। समाज को गढने का दायित्व कोई साधारण कार्य तो नहीं। बुनियाद को नजरंदाज कर कोई मजबूत ईमारत नहीं खडी की जा सकती तो क्यों न हम नये पादपों को सींचें। आईये तितली पर लिखें, सूरज से रिश्ता गढें, चंदा को मामा बनायें और पूर के पूवे खायें।
नये बाल किरदार पैदा अब क्यों नहीं होते? जब से तेनीली रामा, बीरबल और शेखचिल्ली की मौत हुई उनकी कुर्सियाँ खाली ही हो गयीं। जो नये किरदार हैं वो हिंसा और कदाचित भारतीय संस्कृति में जिसे हम शालीन नहीं कहते एसी सामग्री परोस रहे हैं। आज पंचतंत्र का नाम कम ही बच्चों को ज्ञात है। यह सब साधारण बातें नहीं हैं। हम अपनी जडों से बच्चों को काट रहे हैं। पराधीन भारत में अंगरेजों नें हमारी संस्कृति, सभ्यता और बुनियाद को जितना नुकसान नहीं पहुँचाया उतना स्वाधीन भारत के मॉम और डैडों नें पहुचाया है। चंपक, नंदन, चंदामामा और लोटपोट इस लिये फैशन से बाहर हुए क्योंकि चमकीले जिल्द में एसे अंग्रेजी किरदारों और पुस्तकों को हमने अपने घरों में आने दिया और अपने बच्चों की कोमल कल्पना शक्ति से खिलवाड करने दिया जो हमारी सोच-समझ और संस्कृति की परिभाषा से परे थे।
लेकिन दोष किसका है? साहित्यसर्जकों का भी है कि वे बच्चों की कवितायें और कहानियों को साहित्य की श्रेणी प्रदान नहीं कर सके। वह नहीं लिख सके जो बालक मन को इतनी प्रिय हो जाती कि उनकी कल्पनाओं में रंग भरती। आज एसा कोई बाल किरदार है क्या, जिस जैसा बच्चा बनना चाहे? स्पाईडरमैन और सुपरमैन बन कर बच्चा कहीं छत से छलांग न लगा ले धयान रखियेगा चूंकि फ्लेटसंस्कृति में वैसे भी दस दस माले की बिल्डिंगें बनने लगी हैं।
आईये मित्रों!! आने वाली पीढी के लिये कलम चलायें।
***राजीव रंजन प्रसाद