Tuesday, September 2, 2008

प्रवीण पंडित अंकल की कविता, कुहू के लिये - डॉक्टर चूं चूं


आती है एक चिड़िया रोज़
गाती है एक चिड़िया रोज़
प्यार कुहू को करती है
कुछ सुनती, कुछ कहती है
दाना खूब चबाती है
चाकलेट नहीं खाती है

कुहू हुई नाराज़ बहुत
चिड़िया से ना बोले अब
मम्मी से भी कहती है
चिड़िया क्यों नही सुनती है
चूं चूं शोर मचाती है
चाकलेट नहीं खाती है

मम्मी बोलीं ,कुहू सुनो
चिड़िया से खुद बात करो
यूं नाराज़ नहीं रहना
चिड़िया से जाकर कहना
क्यों तुम मुझे रुलाती हो
चाकलेट नहीं खाती हो

चिड़िया आई कुहू के पास
बोली कुहू! ना रहो उदास
तुम हो मेरी फ़्रेंड कुहू
पर मैं हूं डाक्टर चूं चूं

चाकी ज़्यादा खाएंगे
दांत सभी गिर जाएंगे
तुम भी ज़्यादा मत खाना
डाक्टर का मानो कहना
फ़्रेंड का तुम मानो कहना
चूं चूं का मानो कहना


- प्रवीण पंडित

Friday, August 29, 2008

आड हमारी ले कर लडते किसकी आजादी को अंकल? जम्मू प्रसंग..



मत चलाओ बंदूख अंकल
डर लगता है
हम नन्हें नन्हें बच्चों के
हाँथों में तकदीर नहीं
कौन देश, किसकी आजादी
हम अनगढ क्या बूझें जिसको
लालबुझक्कड बूझ न पाये?

आड हमारी ले कर लडते
किसकी आजादी को अंकल?
और लडाई कैसी है यह
दो बिल्ली की म्याउं-म्याउं
बंदर उछल उछल कहता है
किस टुकडे को पहले खाउं?

बडे बहादुर हो तुम अंकल
बच्चो के पीछे छिप छिप कर
बडी बडी बातें करते हो
नाम तुम्हारा अमर हो गया
चुल्लू भर पानी भी चू कर
आँसू ही बन गया हमारे
लाज कहाँ है पास तुम्हारे?

थू है तुम पर
गर इसको तुम
आजादी की जंग बताते
रंगे सियारों की गाथायें
बहुत पढी हैं पंचतंत्र में
लेकिन गीदड कभी न जीते
किसी कहानी में ही अब तक

और आपके बच्चे अंकल
गर्व करेंगे बडे शूर हो
अपनी ही नजरों में
तुम महान तो हो,
क्या कम है?

***राजीव रंजन प्रसाद

Wednesday, August 27, 2008

आईये मित्रों!! आने वाली पीढी के लिये कलम चलायें।


बच्चे तो कच्ची मिट्टी होते हैं और उन्हें गूँथ कर सही आकार देना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। बाल साहित्य पर अभी भी बहुत कार्य होना है। साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिये साहित्यकार की जिम्मेदारी बहुत बढ जाती है। समाज को गढने का दायित्व कोई साधारण कार्य तो नहीं। बुनियाद को नजरंदाज कर कोई मजबूत ईमारत नहीं खडी की जा सकती तो क्यों न हम नये पादपों को सींचें। आईये तितली पर लिखें, सूरज से रिश्ता गढें, चंदा को मामा बनायें और पूर के पूवे खायें।


नये बाल किरदार पैदा अब क्यों नहीं होते? जब से तेनीली रामा, बीरबल और शेखचिल्ली की मौत हुई उनकी कुर्सियाँ खाली ही हो गयीं। जो नये किरदार हैं वो हिंसा और कदाचित भारतीय संस्कृति में जिसे हम शालीन नहीं कहते एसी सामग्री परोस रहे हैं। आज पंचतंत्र का नाम कम ही बच्चों को ज्ञात है। यह सब साधारण बातें नहीं हैं। हम अपनी जडों से बच्चों को काट रहे हैं। पराधीन भारत में अंगरेजों नें हमारी संस्कृति, सभ्यता और बुनियाद को जितना नुकसान नहीं पहुँचाया उतना स्वाधीन भारत के मॉम और डैडों नें पहुचाया है। चंपक, नंदन, चंदामामा और लोटपोट इस लिये फैशन से बाहर हुए क्योंकि चमकीले जिल्द में एसे अंग्रेजी किरदारों और पुस्तकों को हमने अपने घरों में आने दिया और अपने बच्चों की कोमल कल्पना शक्ति से खिलवाड करने दिया जो हमारी सोच-समझ और संस्कृति की परिभाषा से परे थे।


लेकिन दोष किसका है? साहित्यसर्जकों का भी है कि वे बच्चों की कवितायें और कहानियों को साहित्य की श्रेणी प्रदान नहीं कर सके। वह नहीं लिख सके जो बालक मन को इतनी प्रिय हो जाती कि उनकी कल्पनाओं में रंग भरती। आज एसा कोई बाल किरदार है क्या, जिस जैसा बच्चा बनना चाहे? स्पाईडरमैन और सुपरमैन बन कर बच्चा कहीं छत से छलांग न लगा ले धयान रखियेगा चूंकि फ्लेटसंस्कृति में वैसे भी दस दस माले की बिल्डिंगें बनने लगी हैं।


आईये मित्रों!! आने वाली पीढी के लिये कलम चलायें।

***राजीव रंजन प्रसाद

Saturday, August 23, 2008

नृत्य नाटिका में कुहू...जय कन्हैया लाल की..की..

आज कुहू को उठानें में मम्मी को थोडा भी मक्खन नहीं लगाना पडा। कुहू हल्की आहट से ही उठ बैठी, उसे आज स्कूल जाने की हडबडी थी। जन्माष्टमी स्कूल में मनाई जायेगी और कुहू को नृत्य नाटिका में राधा का रोल दिया गया था फिर क्या था-लँहगा चुन्नी, पायल, बहुत सा मेक अप और मुकुट भी। मोतियों की माला सुन्दर सी बिन्दी और नजर से बचाने का काला टीका भी
कुहू नें तैयार होने के बाद खुद को आईने में देखा फिर इतराने लगी। उसे पता था कि वह सुन्दर लग रही है।
फिर कुहू पापा मम्मी के साथ स्कूल गयी। पापा-मम्मी यहाँ कर बहुत खुश हुए। यहाँ तो बहुत सारे कृष्ण और बहुत सारी राधायें थीं। कोई रोने वाले कृष्ण थे तो कोई हँसने वाली राधा।
एक कृष्ण जी का तो रो रोकर इतना बुरा हाल था कि सभी दर्शक उन्हे देख कर हँसते रहे :)
अब नृत्य नाटिका आरंभ हुई और कुहू इस में झूम कर नाची..

स्कूल में कुहू को बहुत सी चॉललेट मिली जिसे ले कर वह जब घर आयी तो बहुत खुश थी। बहुत देर तक वह घर में भी राधा बनी घूमती रही।
सभी अंकल आंटियों और नन्हें मुन्नों को कुहू की ओर से जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें..जय कन्हैया लाल की।


प्रस्तुति: राजीव रंजन प्रसाद

Tuesday, August 19, 2008

कल्पना शक्ति और बच्चों की तुकबन्दी का गहरा रिशता है


बच्चे स्वाभाविक कवि होते हैं। आप बच्चों के सम्मुख गुनगुना भर दीजिये, फिर देखिये कैसे आपका नन्हा मुन्ना या नन्ही मुन्नी अनगढ शब्दों को गढ गढ कर तुक मिलाती है। तुकबंदी असाधारण कला है और इसे परिष्कृत करने का दायित्व है माता-पिता और अध्यापकों का। तुकबंदी साधारण सी और प्यारी लगने वाली प्रकृया होते हुए भी चमत्कृत करने वाले परिणाम दे सकती है, यदि आपके बाल-गोपाल का उसमें मन रम जाये। यह मानसिक विकास में भी सहायक है। कल्पना शक्ति और बच्चों की तुकबन्दी का गहरा रिशता है। एक उदाहरण देखिये। यह कविता मेरी बेटी कुहू कि अपनी तुकबंदी है जो माता-पिता से उसके स्वाभाविक नोकझोंक की परिणति थी:

कुहू:

सबसे प्यारे मेरे पापा
सबसे अच्छी मेरी मम्मी

पापा:

मुझे पढाते मुझे हँसाते
मिलकर लेते मेरी चुम्मी


पापा:

जब मैं बडी हो जाऊंगी
डाक्टर बन कर दिखलाउंगी

कुहू:

पापा को दवाई खिलाउंगी
मम्मी को सूई लगाउंगी
बच कर रहना मुझसे पापा
बच कर रहना मुझसे मम्मी

यह सामान्य तुकबंदी जुडते हुए एक सुन्दर कविता बन गयी। इस कविता से मेरी बिटिया का रुझान तुकबंदी की ओर इस तरह बढा कि वह चार वर्ष की छोटी सी उम्र में छोटी-छोटी कवितायें गढ लेती है। चाहे उसके गढे शब्दों के कुछ अर्थ निकलते हों अथ्वा नहीं किंतु वे अनमोल हैं।

मित्रों बच्चों को समय दें। उनके भीतर की कल्पना को पंख प्रदान करना आपका दायित्व है। तुकबंदी मजेदार खेल है बच्चों के साथ जरा खेल कर तो देखें :)

*** राजीव रंजन प्रसाद

Wednesday, August 13, 2008

पर्यटन – भाग-2: कुहू का बस्तर भ्रमण

मेरे प्यारे दोस्तों,

पिछले अंक में मैंनें आपको बस्तर के इतिहास से परिचित कराया था साथ ही साथ बारसूर और दंतेवाडा नगरों की सैर भी। आज मेरे पिटारे में एसे प्राकृतिक स्थल है।यहाँ पहुँच कर यदि आप प्रकृति प्रेमी हैं तो आप खो जायेंगे वैज्ञानिक सोच रखते हैं तो अपने आगे रहस्यों और ज्ञान की कई परतों को खुला पायेंगे और अगर कवि या साहित्यकार हैं तो फिर तौबा, आपको तो वहाँ से उठा कर ही लाना पडेगा।

जगदलपुर से लगभग 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है भारत के विशाल जलप्रपातों में एक चित्रकोट।


लगभग 100 फीट की उँचायी से गिरती हुई इन्द्रावती नदी विहंगम दृश्य उत्पन्न करती है। यह जलप्रपात नियाग्रा जलप्रपात का छोटा रूप कहा जाता है।
कमजोर चूना पत्थर को गलाती, काटती नदी नें अर्धचंद्राकार स्वरूप ले लिया है। शोर करती और निरझर होती नदी निकट ही उपर उठते फुहारों और इंद्रधनुष के रंगो को बिखेर देती है। बस्तर आने वाले पर्यटक यदि इस जलप्रपात को देखें तो उनका घूमना व्यर्थ ही माना जायेगा।
जुलाई से अक्टूबर के मध्य इस स्थल को देखना सर्वोत्तम है, मानसून में इंद्रावती नदी अपने पूरे वेग पर होती है इसलिये चित्रकोट का सौन्दर्य दुगुना हो जाता है।जलप्रपात के निकट तक नौकाटन का आनंद लिया जा सकता है। निकट की कुछ छोटी छोटी गुफायें हैं जिन्हें मंदिर का स्वरूप दे दिया गया है।
अब कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान की ओर बढते हैं। यह उद्यान जंगली भैंसों के लिये जाना जाता है। दोस्तों, जंगली भैंसे रंग और स्वरूप में आम भैसों की तरह लगते हैं किंतु देह, कद और काठी मे बलिष्ठ।
उनके विशाल सींग उनके सौंदर्य में चार चाँद लगाते हैं। साल और टीक के घने दरखतों वाला इस राष्ट्रीय उद्यान जैव-विविविधता के विश्व में गिने चुने धरोहरों में से एक है।
जीव जंतुओं की तो बडी तादाद यहाँ है ही लाईमस्टोन (चूना पत्थर) तहा के धरातल को कई प्राकृतिक खजाने भी दे गया है जिनमें प्रमुख है कोटुमसर गुफा।
राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में ही इस गुफा के होने का लाभ यह है कि आपको मामूली फीस पर उद्यान के मुख्यद्वार पर ही गाईड मिल जाता है जो कि आपके साथ पैट्रोमेक्स अथवा सौर-उर्जा से जलने वाले प्रकाश स्त्रोत ले कर चलता है। गुफा के भीतर गहरे उतरते हुए साँसे थम जाती है और पाताललोक में प्रवेश जैसा भान होता है।
गाईड के निर्देशों का पालन करते हुए एक बार आप गहरे उतरे नहीं कि ज्ञान और सौदर्य के द्वार आपके लिये खुल जाते हैं। चूनापत्थर ने (लाईम स्टोन) पानी के साथ क्रिया करने के बाद गुफा की दरारों से रिस रिस कर स्टेलेक्टाईट अथवा आश्चुताश्म (दीवार से नीचे की ओर लटकी चूना पत्थर की रचना: छत से रिसता हुवा जल धीरे-धीरे टपकता रहता हैं। इस जल में अनेक पदार्थ घुले रहते हैं। अधिक ताप के कारण वाष्पीकरण होने पर जल सूखने लगता हैं तथा गुफा की छत पर पदार्थों जमा होने लगता हैं इस निक्षेप की आक्र्ति परले स्तंभ की तरह होती हैं जो छत से नीचे फर्श की ओर विकसित होते हैं)



स्टेलेक्माईट अथवा निश्चुताश्म (जमीन से दीवार की ओर उठी चूना पत्थर की संरचना: छत से टपकता हुवा जल फर्श पर धीरे-धीरे एकत्रित होता रहता हैं । इससे फर्श पर भी स्तंभ जैसी आकृति बनने लगती हैं। यह विकसित होकर छत की ओर बड़ने लगती हैं)

और पिलर अथवा स्तंभ (जब स्टेलेक्टाईट और स्टेलेक्माईट मिल जाते हैं) संरचनायें बनायी हैं। इस गुफा में खास देखी जाने योग्य है बिना आँख की मछली – “कैपिओला शंकराईकेवल इसी जगह पायी जाने वाली इस मछली का नाम उसके खोजी डॉ. शंकर तिवारी के नाम पर पड गया था। मछलियों में आँख का होना गुफा के भीतर रोशनी के होने के कारण है। गुफा के अंतिम छोर पर एक स्टेलेक्माईट का स्वरूप शिवलिंग की तरह है और पर्यटक वहा पहुँच कर पूजन भी करते हैं। मैं इस स्थल तक पहुँचने के रोमांच को कभी नहीं भुला सकती।
दोस्तों विज्ञान की इन्ही बातों के साथ हम अपने बस्तर भ्रमण के इस अंक को विराम देते हैं लेकिन अभी मेरी यात्रा पूरी नहीं हुई। बस्तर के और भी दुर्लभ स्थलों की यात्रा शेष है।


- - आपकी कुहू।

प्रस्तुति : *** राजीव रंजन प्रसाद